अकादमिक दुनिया में यह आम राय है कि भारतीय परिवारों में बेटी पैदा होने पर मातमी माहौल छा जाता है। ये धारणा एक हद तक सही भी है। जिनके घर में बेटी का जन्म होता है, उन्हें लगता है, जैसे जीवन में अँधेरा छा गया हो। माँ खुद को कोसती है कि यदि वो पहले जान पाती कि बेटी पैदा होगी, तो कोई जतन करके उसे पेट में ही मार डालती। बेटी पैदा होने की खबर पाकर पिता मुँह लटकाए, मुरझाया हुआ फिरता है। ये बातें स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीतों में भी आई हैं :
जब मोरे बेटी हो लीहलीं जनमवाँ
अरे चारों ओरियाँ घेरले अन्हार रे ललनवाँ
सासु ननद घरे दीयनो ना जरे
अरे आपन प्रभु चलें मुरुझाइ रे ललनवाँ (1)
लेकिन बेटी के जन्म से संबंधित इससे भिन्न लोकविश्वास को प्रकट करने वाले लोकगीत भी पाए जाते हैं। इसका मतलब कि जिस धारणा को प्रचारित-स्थापित किया गया, उससे भिन्न धारणा भी समाज में मौजूद रही है। न जाने क्यों एक धारणा को आम राय का रूप देने के लिए चुना गया और इससे भिन्न धारणाओं का जिक्र भी नहीं किया गया/जाता। गीतों में स्त्री अपने ईष्टदेव से पुत्र के साथ पुत्री की भी कामना करती है और उसके 'सत्यनारायण भगवान' ऐसा आशीर्वाद भी देते हैं :
सोनवा त मागीला हरदी एइसन
रूपवा दधीय एइसन हो
ललना धीयवा त मागीला हो लवंग एइसन
पूतवा हो नरीयर एइसन (2)
स्त्री सत्यनारायण जी से सोना हल्दी की तरह यानी शुद्ध और रूप दही के जैसा गोरा माँगती है। वह लौंग के जैसी तन्वंगी बिटिया और बेटा नारियल के जैसा यानी तंदुरुस्त और बलिष्ठ माँगती है। सत्यनारायण जी पूछते हैं, 'ये सब किसलिए माँग रही हो?' स्त्री कहती है :
सोनवा त लेब सोहाग खातिर
रूपवा सिंगार खातिर हो
ललना धीयवा त लेबों धरम खातिर
पूता धन सँउपऽ खातिर हो (2)
(सोना अपने सौभाग्य के लिए, रूप-सौंदर्य सजने-सँवरने के लिए माँग रही हूँ। बेटी धर्म-लाभ प्राप्त करने के लिए तथा बेटा विरासत सौंपने के लिए माँग रही हूँ।)
इस गीत के विषय पर चर्चा के दौरान दुलारी देवी 60-62 साल, रंभा देवी 47-48 साल, मेरी माँ फूलेश्वरी देवी उम्र 55 साल ने बताया कि धर्म के लिए अर्थात पुण्य-लाभ के लिए बेटी का कन्यादान किया जाता है। बेटी का कन्यादान करने से जाँघ पवित्र होती है अर्थात जीवन सफल होता है, इसलिए एक बेटी तो होनी ही चाहिए। इन लोगों ने यह भी बताया कि यदि कोई ऐसा अभागा है जिसकी अपनी बेटी नहीं है, तो वह किसी अन्य की बेटी का कन्यादान करके अपनी जाँघ पवित्र करता है। मेरे गाँव में एक मंद बुद्धि पुरुष हैं - नारायण, इन्हें नरायन या हरखू कहा जाता है। हरखू का उदाहरण देते हुए इन्होंने कहा, ''अपने ही गाँव में देखिए न! हरखू के औलाद नहीं थी तो उनसे विनीता (हरखू की भतीजी) का कन्यादान करवाया गया। ये सोचा गया कि इनकी भी जाँघ पवित्तर हो जाए।''
यद्यपि इस घटना से मैं स्वयं वाकिफ था, लेकिन इस प्रसंग के उल्लेख से पहले इसके कारण और महत्व से नावाकिफ था। अतः ये बात मुझे याद भी नहीं रही थी।
अब पूरी तस्वीर ये बनती है कि समाज में बेटी के जन्म से दुखी होने, इसे बुरा मानने की प्रवृत्ति को एक सीमा से अधिक बढ़ने से रोकने के लिए उसी समाज के भीतर एक लोकविश्वास उभरता है। भारतीय समाज में तमाम बुराइयाँ रही हैं, लेकिन उसी के समांतर इन्हें रोकने और संतुलित (Check & Balance) करने वाली प्रवृत्तियाँ और मान्यताएँ भी रही हैं।
लेकिन पश्चिमी शासन, धर्म, ज्ञान, साहित्य को श्रेष्ठ ठहराने के लिए भारत में केवल बुराइयाँ ही बुराइयाँ दिखाई गईं। दशकों-शताब्दियों तक उनके साथ कदमताल करते हुए तमाम भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी अपने समाज की बुराइयाँ (जो असल में थीं) चुन-चुनकर और कुछ अपनी सुविधा के अनुसार गढ़कर (जो थीं ही नहीं) भारत की गलत तस्वीर बना दी।
बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप तथा परिजन दुखी और चिंतित क्यों होते हैं? इसे जाने बिना इस मुद्दे के साथ न्याय नहीं होगा। यह चर्चा आगे की जाएगी, जब इसके कारणों को स्पष्ट करने वाली बातें हो चुकी होंगी।
बेटी के पैदा होने के बाद उसे मार डालने की कोशिश या इच्छा गीतों में नहीं पाई जाती। जन्म लेने के बाद बेटी भी माँ के लिए अपने ही रक्त से सींचकर पैदा की गई संतान है। वह अपनी बाललीलाओं से माँ-बाप के हृदय को आनंदित करती है। उसके प्यार-दुलार में माँ-बाप जीवन की तमाम दुश्वारियाँ, कुछ ही समय के लिए सही, बिसार देते हैं :
जब मोरी बेटी खेलत-खात अइलीं
अरे दिल क दरद हरि लेलीं रे ललनवाँ
सासु ननदिया क जीव जरि जाला
अरे आपन प्रभु जीव जुड़वावैं रे ललनवाँ (1)
बेटी खेलते-कूदते बड़ी तेजी से बढ़ने लगती है। इसलिए सबसे तेज बढ़ने वाले बाँस के करील से उसकी समानता की गई है :
बँसवा के जरीयाँ से नीकले करीलवा
अरे बँसवा के जीव के जवाल रे ललनवाँ
माई की गोदिया में जनमल बिटियवा
अरे माई के जीव क जवाल रे ललनवाँ (1)
इस रूपक के जरिए कई बातें सामने आती हैं। एक तो माँ-बाप को ये लगता है कि बेटी तेजी से बढ़ कर जल्दी ही शादी योग्य हो जाती है। यह भी कि बाँस के करील पर यदि कौआ बैठ जाय तो वह ठूँठ हो जाता है, अतः बाँस अपनी घनी पत्तियों में छुपाकर करील की रक्षा करता है। माँ भी अपनी बेटी को ममता के आँचल में छुपाकर तमाम पारिवारिक-सामाजिक आघातों से बचाती है। यह सावधानी उसे बेटी का ब्याह हो जाने तक बरतनी होती है।
बड़ी होने के साथ बेटी अपने तमाम पारिवारिक-सामाजिक दायित्वों को निभाती है। इस पक्ष को उद्घाटित करने वाली बातें पीड़िया के गीतों में आती हैं। पीड़िया उत्तर भारत का एक प्रचलित उत्सव है। यह त्योहार बहन अपने भाई की कुशलता और समृद्धि के लिए मनाती है।
पीड़िया का उत्सव महीने भर का होता है। कुछ क्षेत्रों में दीपावली के अगले दिन और कुछ क्षेत्रों में एक दिन के अंतराल के बाद मनाए जाने वाले गोवर्धन पूजा (गोधना) से इसकी शुरुआत होती है। यह त्योहार गाँव के किसी एक सर्वस्वीकृत घर के सामने मनाया जाता है। इस दिन बहनें अपने भाई की वृद्धि-समृद्धि के लिए दोपहर तक उपवास रखती हैं। गोवर्धन पूजा के दौरान पर्याप्त मात्रा में गाय के गोबर से लड़कियाँ भूमि पर दो मनुष्याकृति बनाती हैं, एक नर तथा दूसरी मादा। नर आकृति को गोवर्धन/गोबरधन /गोधन/गोधना तथा मादा आकृति को गोधनी कहते हैं। दोपहर तक सारी लड़कियाँ जुट आती हैं और फिर मिलकर नर आकृति को मूसल से कूटती हैं। मान्यता है कि यह गोबरधन राधा का पति है और कृष्ण-राधा के प्रेम में बाधक है। यह शोध का एक रोचक एवं महत्वपूर्ण विषय है, किंतु अभी मुझे अपना लेख मुख्यतः लोकगीतों के आधार पर ही तैयार करना है, शेष प्रसंग गीतों में आई बातों को पुष्ट करने के लिए तथा कड़ियों को जोड़ने के लिए ही लाए जाएँगे। अतः ऐसे प्रसंगों को भविष्य के लिए छोड़ते हुए, इनका उल्लेख मात्र करके, आगे बढ़ जाना ही उचित होगा।
मादा आकृति से गोबर लेकर लड़कियाँ बेर-जामुन जितने आकार की पीड़िया (गिलोरी) बनाती हैं। गोबर की यह पीड़िया लड़कियाँ उस घर (जिस घर के सामने गोधना मनाया जाता है) के किसी बड़े कमरे में दीवाल से चिपका देती हैं। स्त्री के लिए भारतीय परिवार और समाज में बिल्कुल स्पेस न होने का राग अलापने वाले तथा आधुनिकता के जरिए भरपूर स्पेस मुहैया करा देने का दावा करने वाले ध्यान दें! उस दिन से अगहन, कृष्ण, द्वादश तिथि यानी लगभग एक महीने तक गाँव की सभी लड़कियाँ प्रतिदिन देर शाम को अपने घर से खा-पीकर उस पीड़िया वाले कमरे में जुटती हैं और पूरी रात पीड़िया अगोरती (पीड़िया की रखवाली करती) हैं और सुबह वापस अपने घर जाती हैं। पीड़िया-कक्ष में ज्यादातर सयानी-अविवाहित लड़कियाँ, ऐसी विवाहित लड़कियाँ जो उस समय मायके आई हुई हों, कुछ बहुएँ और सबसे कम बुजुर्ग महिलाएँ जुटती हैं। वहाँ लड़कियाँ-औरतें गीत गाती हैं, कथा कहती-सुनती हैं, नाचती हैं, आपस में ढेर सारी हँसी-ठिठोली, छेड़छाड़ और चुहलबाजी करती हैं और थककर वहीं सो जाती हैं। बिल्कुल सपनों सरीखा जीवन। मानो सूरदास का स्वप्नलोक काफी कुछ अंशों में मूर्त हो उठा हो। इसकी पारिवारिक-सामाजिक स्वीकृति का दायरा भी जान लें। गाँव के ऐसे घर जो पीड़िया-घर से दूर एकांत में पड़ते, उस घर से पीड़िया उत्सव में जाने वाली लड़की को घर का कोई पुरुष सदस्य देर शाम पीड़िया-घर तक सुरक्षित पहुँचा आता था। अभी हाल तक, इक्कीसवीं शताब्दी में भी, ऐसा होता रहा है।
यह भारतीय परंपरा द्वारा अनुमोदित स्पेस है। आधुनिकता के आने के साथ आदर्श भारतीय परिवार की आदर्श स्त्री बनाने के अभियान के साथ और इसके बाद यह स्पेस घटा है।
अब उस बिंदु पर आते हैं जिस संदर्भ में पीड़िया की चर्चा शुरू हुई थी। पीड़िया के गीतों में बेटी अपने मायके के प्रति दायित्वों और कर्तव्यों को लेकर चिंतित दिखती है। हालाँकि यह बात भी लोकगीतों की मुख्य प्रवृत्ति यानी वस्तुनिष्ठ सह-संबंध के द्वारा ही कही जाती है। पीड़िया के गीतों में बेटी बार-बार यह अफसोस प्रकट करती है कि वह मायके में अपनी हसरतों को पूरा भी नहीं कर पाई कि उसके गौना या विदाई का दिन तय हो गया :
अंगना मों झारि-झुरि दुआरे घुर लगवलीं
कि जामि गइलँ ना, ऊजे अल्हर अमोलवा
कि जामि गइलँ ना
अल्हर अमोलवा मों सींचहू ना पवलीं
कि आइ गइलँ ना, मोरे ससुरू उवदवा
कि आइ गइलँ ना (3)
(आँगन झाड़-बुहार कर मैंने घर के सामने एक घूरा लगाया। उस पर एक कोमल अमोला यानी आम का पौधा उग आया। मैं उस अमोले को ठीक से सींचने भी न पाई कि मेरे ससुर जी ने विदाई का दिन तय करने के लिए पैगाम भेज दिया।)
'आल्हर अमोला' मधुर रागात्मक संबंधों का प्रतीक बनकर आया है। बेटी अपने मायके के मधुर रागात्मक संबंधों का भरपूर सुख लेने भी न पाई कि उसकी विदाई का दिन तय हो गया। इसी विषय का एक अन्य गीत इस प्रकार है :
लगली पीड़ियवा छोड़वहू ना पवलीं
कि आइ गइलँ ना, हमरे गवने क उवदवा
कि आइ गइलँऽ ना (4)
(लगी हुई पीड़िया मैं छुड़ाने भी न पाई कि मेरे गौना का दिन तय हो गया)।
गौना का दिन तय हो जाने पर गीत की अगली पंक्तियों में बेटी अपने पिता से कहती है, 'बाबा, गौने का दिन टाल दीजिए।' तब बेटी के पिता अपनी असमर्थता जताते हुए कहते हैं, 'तुम चिंता मत करो। तुम्हारी पीड़िया मैं गंगा में बहाऊँगा (विसर्जित करूँगा)।' लेकिन बेटी के मन को संतोष नहीं, वह कहती है :
जइसे-जइसे बाबा हो मारै गंगा का हिलोरवा
वोइसे हो वोइसे ना, हमरै बीहरैला करेजवा
वोइसे हो वोइसे ना (4)
(पिता द्वारा पीड़िया गंगा में बहाने के बाद बेटी कहती है : जैसे-जैसे गंगा में लहरें उठती-गिरती हैं, वैसे-वैसे मेरे कलेजे में भी कसक होती है।)
इस गीत में बेटी की यही चिंता है कि वह अपने मायके वालों का खयाल रखती रही है, अब उसकी विदाई का दिन तय हो गया, उसके चले जाने पर ये लोग न जाने कैसे रहेंगे! यद्यपि उसके पिता यह आश्वासन देते हैं कि वे लोग सब कुछ ठीक से निपटा लेंगे, किंतु बेटी को संतोष नहीं होता। ध्यान रहे कि घर के सदस्यों के सुबह के नाश्ते से लेकर रात को उनकी खाट-चारपाई बिछाने-लगाने तक सारा खयाल बेटियाँ ही रखती हैं। बेटियों को विदाई के समय यह चिंता होती है कि अब घर वालों का खयाल कौन करेगा? पता नहीं लोग कैसे सहेजेंगे? इसे समझने के लिए इस सामान्य मनोविज्ञान को समझना जरूरी है कि फिक्रमंद व्यक्ति को प्रायः यह डर सताया करता है कि यदि वो नहीं रहा या उसे कुछ हो गया तो परिजनों-प्रियजनों का क्या होगा? हालाँकि ये भी कहा जाता है और सही कहा जाता है कि किसी के जाने से दुनिया नहीं रुकती। इसके बावजूद परिजनों-प्रियजनों की फिक्र करने वाले लोग अनहोनी की आशंका से सिहर उठते हैं।
इन गीतों की मैंने जो व्यंजना निकाली है, इस पर बिल्कुल अनजान और नादान की तरह, गीत गाने वाली दुलारी देवी से पूछा कि 'क्या ये सही है?' इस बात पर उनकी आँखों में एकदम चमक आ गई, जैसे उनके अस्पष्ट मनोभाव को किसी ने शब्द प्रदान कर दिए हों। उन्होंने खुश होकर कहा 'हाँ, बिल्कुल यही बात'। थोड़ी दूर पर कुछ महिलाएँ बातचीत में मशगूल थीं, उत्साहित होकर दुलारी देवी ने कहा, 'हे, तू लोग भी सुना। कितनी बढ़िया बात कह रहे हैं।' लेकिन वे महिलाएँ बातचीत में इतनी रमी हुई थीं कि इस ओर ध्यान ही नहीं दिया।
ऊपर उल्लिखित पीड़िया के इन दो गीतों में जो भावना व्यंजित होती है, उसे कालिदास ने 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' में भी रचा है। इसके चौथे अंक में कण्व ऋषि के आश्रम से विदा हो रही शकुंतला का रास्ता वह हिरण शावक रोक लेता है, जिसे उसने संकट से बचाकर और बहुत ही स्नेहपूर्वक पाला था। (अभिज्ञानशाकुंतलम् 4.16)। हिरण शावक और गीतों में आल्हर अमोला दोनों ही रागात्मक संबंधों की कोमलता के प्रतीक के रूप में आए हैं। इसी प्रकार शकुंतला आश्रम की माधवी नाम की एक लता से लिपटकर भेंटती हैं और फिर पिता कण्व और सखियों को इसके देखभाल की जिम्मेदारी सौंपती हैं। (4.14)। कण्व ऋषि भी यथोचित आश्वासन देकर शकुंतला को प्रस्थान करने को कहते हैं। (4.15)। यही बात गीतों में पीड़िया के विसर्जन के संबंध में बेटी की चिंता और पिता द्वारा इसके समुचित विसर्जन की जिम्मेदारी लेने के रूप में आती है। इस तरह के प्रसंग पीड़िया के ढेर सारे गीतों में टुकड़ों में आते हैं। इन्हें ही जब कालिदास जैसा महान सर्जक कथा के विन्यास में रचता है, तो ये प्रसंग और अधिक मार्मिक तथा प्रभावशाली बन जाते हैं।